कैसे होगी डूबती कांग्रेस की नैय्या पार
प्रशांत किशोर नाम की एंट्री करवाकर कांग्रेस ने खुद ही करवा ली अपनी फजीहत। प्रशांत किशोर जैसे नाम की एंट्री नहीं चाहते पार्टी के महत्त्वाकांक्षी नेता। पार्टी के नेताओं में आपसी मतभेद और विश्वास की भारी कमी। नेतृत्व पर विश्वास केवल नौटंकी। नेतृत्व में
अपनी सोच का भारी आभाव। नेतृत्व कुछ चुनिंदा लोगों के हाथो की कठपुतली। ये चुनिंदा लोग नहीं चाहतें पार्टी का अस्तित्व रहे। इन सभी में अपनी-अपनी राजनीतिक विरासत को बचाये रखने की रस्साकसी। पुरानी सोच पर आगे बढ़ रही पार्टी में सुचिता के साथ काम करने वाले कार्यकर्ताओं का अभाव। कर्मठ एवं वास्तविक कार्यकर्ताओं का पार्टी से दूरी बना लेना। किसी भी बड़े नेता ने नहीं किया पार्टी के लिए काम केवल अपने अस्तित्व को बचाये रखने के चक्कर में किया पार्टी का बड़ा नुकसान। ऐसी क्या मज़बूरी है पार्टी आलाकमान की उसे केवल कुछ गिने चुने लोग ही सक्षम दिखतें हैं? क्या पार्टी के नई पीढ़ी के कार्यकर्ताओं में नेतृत्व क्षमता नहीं ?
ऐसे हालात में पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व दिशा और शक्ति विहीन है या फिर उनके पास अपना कुछ भी नहीं है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है की ऐसे कौनसे वो सलाहकार है जो दांव लगाते ही उल्टा पड़ने के लिए हैं। जंहा तक प्रशांत किशोर की बात है उसने पार्टी में शामिल होने के लिए ऐसे ही मना नहीं कर दिया है इसके पीछे के कारण को देखा जाये तो बात स्पष्ट है कि वो इतना शातिर खिलाडी है कभी कमजोर घोड़े पर दांव नहीं लगाता। मूल रूप से कांग्रेस को कुछ वर्षों पूर्व तक यह अहसास भी नहीं था कि उसके सामने विपक्ष के रूप में ऐसा मजबूत नेतृत्व भी खड़ा हो सकता है ? क्योंकि कांग्रेस ने आज़ादी के बाद से ही एक तरफ़ा राज किया, जब तक सशक्त विपक्ष तैयार हुआ पार्टी ने अपने आपको मुकाबले के लिए तैयार ही नहीं किया, जिसका परिणाम आज हम सबके सामने है। पार्टी आज भी उसी परिवारबाद में उलझी हुई है, जो कि पार्टी कि सबसे बड़ी कमजोरी है। देश -काल- परिस्थिति
के अनुसार कभी भी पार्टी ने विचार ही नहीं किया। या फिर हम ये कह सकतें हैं कि उक्त परिवार विशेष में उतनी क्षमताएं नहीं थीं वो तो विरासत में मिली सत्ता के आनंद ले रहे थे।
शीर्ष नेतृत्व का हाल तो ऐसा है "चाहे दुकान बंद हो जाये, गल्ले पर तो तू ही बैठेगा"।
सम्पूर्ण देश में कांग्रेस शासित प्रदेशों कि स्थिति ही लें लें , वंहा कि स्थिति क्या है ? वही ढाक के तीन पात, वंहा भी पार्टी को अपनी साख बचाने के लाले पड़े हुए हैं। सब कुछ जानते हुए भी इन प्रदेशों के तथाकथित बड़े नेता केंद्रीय नेतृत्व को गुमराह कर रहें हैं। राजस्थान और छतीशगढ जैसे बड़े राज्यों में पार्टी की अंतरकलह जग जाहिर है। कार्यकर्ताओं में भारी अशंतोष व्याप्त है, जिस पर सत्तालोलुप तथाकथित नेताओं ने पर्दा डाल रखा है।
कार्यकर्त्ता की सुनने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के पास ना तो आज समय है ना पहले कभी था। हालत ऐसे हैं अक्सर सुनने में यही आता है में फलां नेता का आदमी हूँ। इसका मतलब स्पष्ट है पार्टी का कोई नहीं है। फिर पार्टी क्यों न अपना अस्तित्व खोये ? इसे बचाने के लिए स्वयं भगवान् तो आएंगे नहीं। कर्म तो करना ही पड़ेगा, वो भी स्वार्थ त्याग कर, अगर अब भी नहीं चेते तो विकल्प के रूप में बहुत से दल घात लगाए बैठे हैं। और मजे की बात ये है कि इन दलों में भी आपके चहेते नेताओं के चेहरे ही नजर आएंगे।
वर्तमान
में पार्टी को केवल और केवल अपना अस्तित्व बचाएं रखने की लड़ाई लड़ने के लिए योजना बनाते देखा और सुना जा सकता है। क्या आजादी से आज तक पार्टी के नाम पर जिन राजनितिक घरानों ने अरबों -खरबों की संम्पत्ति अर्जित की है उनकी पार्टी के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती
? वेशर्मी
की
हद तो ये है कि जंहा-तंहा थोड़ा बहुत अस्तित्व बचा है वंहा की स्थानीय लीडरशिप भी माल बनाने में लगी हुई है। जिसको मौका मिल रहा है वो पार्टी के लिए नहीं केवल अपने लिए काम कर रहा है। वो समय अलग था जब सूचनातंत्र इतना मजबूत और प्रभावी नहीं था, आज तो पत्ता भी हिलता है तो आहट दूर तक जाती है। ऐसे में आप अगर आमजन की भावनाओं के विपरीत काम करोगे तो आम जान बख्शेगा तो नहीं। जंहा तक कार्यकर्त्ता और नेताओं कि बात है अंदर खाने विद्रोह की भावना और बाहर दीखाने को पार्टी भक्ति, हो भी क्यों ना, उन्हे माल कमाने का अवसर देने की लॉलीपॉप जो दे रखी है। विद्रोह ना हो जाये,सत्ता खतरें में ना पड़ जाये,खुद कमाओं अपने चहेतों की कमाई कराओ बस यही एक सूत्रीय कार्यक्रम है। अगर पार्टी में ही दूसरे धड़े के हाथ में सत्ता चली गई तो वो और उसके चहेते कमाएंगे।